Saturday, February 5, 2011

राष्ट्रमंडल खेल के साइड इफेक्ट


अगर बात कैंपस में नए फैशनेबल परिधानों के आगमन की होती या फिर अंग्रेजी माध्यम के छात्र-छात्रों द्वारा अपनाए गए नए अवतार की, तो निश्चित तौर पर इस खबर को कुछ बड़े प्रकाशनों द्वारा पूरा पेज दिया गया होता या चैनलों द्वारा आधे या एक घंटे का प्रोग्राम ही तैयार करा दिया गया होता। चूंकि बात छात्र-छात्राओं के हक की थी, तो शायद इनके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती है।

बीते दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी स्थित स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा के पास युवाओं के हुजूम ने कैंपस के कॉलेजों में पढ़ने वाले पुराने व नए छात्र-छात्रों को छात्रावास आवंटन कराने की मांग को लेकर शांतिपूर्ण लेकिन प्रभावशाली तरीके से अपना विरोध प्रदर्शन दर्ज करवाया, तो देश के तमाम खबरिया चैनलों और समाचारपत्रों को यह खबर कुछ खास लुभा नहीं पाई।

मालूम हो कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान आने वाले मेहमानों को ठहराने के नाम पर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावासों को छात्र मुक्त बनाने के लिए वहां रह रहे नए-पुराने सभी छात्र-छात्राओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। प्रथम वर्ष में दाखि लेने वालों को तो साफ-साफ कह दिया गया है कि फिलहाल वे कोई और ठिकाना ढूंढ लें। अब इन लोगों को छात्रावास में दोबारा जगह राष्ट्रमंडल खेल के खत्म होने के बाद ही मिलेगी।

यह कहना गलत नहीं होगा कि बात चाहे कॉमन मैन की हो या फिर छात्रों की, सभी पर राष्ट्रमंडल खेल के साइड इफेक्ट स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहे हैं। लेकिन इन सभी बातों के बीच एक बात समझ से परे है कि दिल्ली सरकार ने बाहर से आने वाले मेहमानों को ठहराने के लिए छात्रावास को ही निशाना क्यों बनाया। अगर सरकार चाहती तो उनके लिए नए छात्रावासों का निर्माण करवा सकती थी या फिर सरकारी गेस्ट हॉउसों में ही उत्तम प्रबंध करवा सकती थी।

आखिर खेल के नाम पर जहां करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हों, वहां कुछ रुपए और सही। अगर दिल्ली सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन नए छात्रावास बनाने के बारे में विचार करता, तो निश्चित तौर पर यह ज्यादा फायदेमंद साबित होता। सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटा लागू किए जाने के बाद छात्र-छात्राओं ने अतिरिक्त छात्रावासों की मांग की थी। ऐसे में नए तैयार किए गए हॉस्टलों के जरिए मांग और आपूर्ति को पाटा जा सकता था। पहले से ही दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रावासों की संख्या दूसरे राज्यों से आने वाले छात्रों के अनुपात में काफी कम है। कई छात्र मजबूरी में बाहर कमरे लेकर रहते हैं। लेकिन कौन समझाए दिल्ली सरकार को, वह तो खेलों के सफल आयोजन कराए जाने को लेकर कुछ भी कर गुजरने पर आमादा है और यही वजह है कि वह नए कमरे बनाने के मुकाबले सुरक्षित रह रहे बच्चों को बाहर खदेड़ना ज्यादा आसान समझती है।

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के प्रस्तावित बजट में अब तक कई गुना वृद्धि हो चुकी है और इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले समय में इसमें और वृद्धि देखने को मिलेगी। दिल्ली सरकार तो पिछले तीन सालों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आवंटित बजट राशि को भी राष्ट्रमंडल खेलों में ही झोंक रही है। तो क्या ऐसे में सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम आदमी और छात्रों को तकलीफ पहुंचा कर इस तरह के खेल आयोजित कराने की क्या जरूरत है।

दरअसल, एक ओर जहां केंद्र की मिलीभगत से दिल्ली सरकार कॉमन मैन की गाढ़ी कमाई को राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पानी की तरह बहा रही है, वहीं दूसरी ओर वह छात्रों के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रही है।

('दैनिक भास्कर' में 10 अगस्त '10 को प्रकाशित)