Saturday, August 10, 2013

अशुद्ध साधन बनाम शुद्ध साधन




....गांधीजी जिसे शुद्ध साधन समझते हैं..., वह भी शुद्ध है नहीं। जैसे गांधीजी कहते हैं कि अनशन है। उसे वह शुद्ध साधन कहते हैं। मैं नहीं कह सकता। क्योंकि दूसरे आदमी को मारने की धमकी देना अशुद्ध है, तो स्वयं को मर जाने की धमकी देना शुद्ध कैसे हो सकता है? मैं आपकी छाती पर छुरा रख दूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मार डालूंगा, यह अशुद्ध है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख लूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं मर जाऊंगा, यह शुद्ध हो जाएगा?....

अंबेडकर के खिलाफ गांधीजी ने अनशन किया। अंबेडकर झुके बाद में। इसलिए नहीं कि गांधीजी की बात सही थी, बल्कि इसलिए कि गांधीजी को मारना उतनी सी बात के लिए उचित न था। इतनी हिंसा अंबेडकर लेने को राजी न हुए। बाद में अंबेडकर ने कहा कि गांधीजी अगर समझते हों कि मेरा ह्रदय-परिवर्तन हो गया, तो गलत समझते हैं। मेरी बात तो ठीक ही है और गांधीजी की बात गलत है। और अब भी मैं अपनी बात पर टिका हूं। लेकिन इतनी सी जिद्द के पीछे गांधीजी को मारने की हिंसा मैं अपने ऊपर नहीं लेना चाहूंगा। अब सोचना जरूरी है कि शुद्ध साधन अंबेडकर का हुआ कि गांधी जी का हुआ? इसमें अहिंसक कौन है? मैं मानता हूं, अंबेडकर ने ज्यादा अहिंसा दिखलाई। गांधीजी ने पूरी हिंसा की। वह आखिरी दम तक लगे रहे कि जब तक अंबेडकर राजी नहीं होता, तब तक तो मैं मरने की तैयारी रखूंगा।.....

ओशो
पुस्तक : कृष्ण-स्मृति

(प्रवचन नं. 10 से संकलित)

Tuesday, August 2, 2011

सेहत की बढ़ती दिक्कत, जागरूकता की जरूरत


आज की तेज रफ्तार जिंदगी में लोगों के लिए खुद को स्वस्थ रखना बेहद चुनौतिपूर्ण हो गया है। एक ओर जहां शहरी आबादी की आय में बढ़ोतरी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा में वृद्धि देखने को मिल रही है तो वहीं दूसरी ओर उनकी आधुनिक जीवनशैली ने बहुतेरे बीमारियों को भी न्यौता दे दिया है। आधुनिक जीवनशैली के कारण हम जिन सामान्य बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं उसमें हाइपरटेंशन, मोटापा, कमर व शरीर दर्द, डायबिटीज, कैंसर आदि बेहद आम है।

कमर दर्द
वर्तमान में, कंप्यूटर या लैपटॉप का इस्तेमाल अपरिहार्य हो गया है। लिहाजा कंप्यूटर पर लगातार काम करते रहने से आंखों में चुभन के साथ-साथ कमर, सिर, कंधों और गर्दन में दर्द होना बेहद आम बात है। कंप्यूटर पर काम करने वालों को कार्पेल टनल सिंड्रोम होना सामान्य है। हालांकि कुछ सावधानियां और तरीके अपनाकर हम अपने आपको कंप्यूटर के निगेटिव प्रभावों से बचा सकते हैं। काम के दौरान कम से कम 8-10 ग्लास पानी जरूर पीए। 30 से 40 मिनट के अंतराल पर ब्रेक लेते रहें, इससे पैरों में भी खून का बहाव ठीक रहता है। काम के बीच-बीच में अपने कंधों, सिर और हाथों को 15-10 सेकेंड पर आगे-पीछे व दाएं-बाएं घुमाते रहें, इससे आपके शरीर में रक्त का संचार ठीक रहेगा। लगातार बैठकर काम करने से पाचन क्रिया से संबंधित बीमारियां भी होने का खतरा रहता है इसलिए ऐसे लोगों को हल्का खाना खाना चाहिए।

अब तो कई प्राइवेट कंपनियां अधिक काम और तनाव की जद में अपने वाले कर्मचारियों की शारीरिक फिटनेस का ध्यान रख रही हैं। इस बाबत बड़े शहरों में कारपोरेट फिटनेस कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। कार्यस्थल पर हेल्थकेयर की सुविधा देने से कंपनियों को कई सकारात्मक लाभ मिले हैं।

हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप)
आज लोगों में हाइपरटेंशन एक बहुत ही आम समस्या है। हाइपरटेंशन की मुख्य रूप से शारीरिक और मानिसक कारणों से होता है। खून में कालेस्ट्रल की वृद्धि, मोटापा, आनुवांशिक, अत्याधिक मांसाहारी भोजन, अत्याधिक तैलीय भोजन, शराब, अधिक चिंता, अकारण परेशान, जरूरत से ज्यादा काम तथा परिवार में या कार्यस्थल में तनाव आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिससे हाइपरटेंशन की समस्या उत्पन्न होती है।

हम खानपान में बदलाव और कुछ आदतों को अपना कर हाइपरटेंशन की बला को टाल सकते हैं। मिसाल के तौर पर धनिया, गोभी, नारियल, शहद, का सेवन फायदेमंद होता है। इसके अलावा, मोटापे परहेज, गुस्सा, परेशानी और निगेटिव एनर्जी से दूर रहना व योगा करना इस बीमारी में लाभदायी होता है।

डायबिटीज (मधुमेह)
डायबिटीज एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की समस्या बनती जा रही है। पहले यह वयस्कों को या फिर बुढ़ापे में ही हुआ करती थी लेकिन अब आधुनिक जीवनशैली और अनियंत्रित खानपान के कारण डायबिटीज पर नियंत्रण करना मुश्किल हो गया है। डायबिटीज का खतरा सबसे ज्यादा शहरों में बसने वाले लोगों को है। यह बीमारी अपने साथ कई अन्य बीमारियों को भी पैदा कर देती है। इस बीमारी से लोगों का मोटापा बढ़ने लगता है और दिल का दौरा पड़ने का खतरा भी बढ़ जाता है। किडनी पर भी डायबिटीज का बुरा असर पड़ता है।
इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए मरीज को अपने खानपान और जीवनशैली को सख्ती से अनुशासित करना चाहिए।

सफेद दाग
डर्मेटोलॉजी में सफेद दाग को ल्यूकोडर्मा, विटिलिगो, श्वेतचर्म या फूलबहरी रोग कहते हैं। इसकी मूल वजह मेलोनोसाइट्स की त्वचा में कमी है। मेलोनोसाइट्स जब काम करना बंद कर देता है तो त्वचा में मेलानोसोम्स नहीं बनता और चमड़ी के उस हिस्से में मेलोनोसाइट्स अशक्त हो जाते हैं, जिसके कारण संपूर्ण सफेद दाग होने लगते हैं। आमतौर पर हाथ-पांव, पलकों, कान या उसके पीछे, वक्ष और रगड़ वाली जगह, घुटने और एड़ी के पास होती है।

हालांकि सफेद दाग का इलाज लगभग पूर्णतः संभव है। लेकिन इसके इलाज के लिए मरीज को योग्य त्वचा रोग विशेषज्ञ से सलाह लेना चाहिए। सफेद दाग को सर्जरी, लेजर सर्जरी, त्वचा प्रत्यारोपण या टैटूइंग के जरिए इलाज किया जाता है। खासकर स्थाई सफेद दाग के मामले में कारगर मेलानोसाइट-केराटिनोसाई सेल सस्पेंशन नामक इलाज ने सफेद दाग के मरीजों में धब्बे से निजात दिलाने की दिशा में सकारात्मक आशा जगाई है।

कैंसर
फिलहाल कैंसर को लाइलाज माना गया है, लेकिन देश-दुनिया के वैज्ञानिक इस जानलेवा बीमारी से निजात दिलाने के लिए अपनी खोज प्रक्रिया को जारी रखे हुए हैं। देश भर में कैंसर से मरने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारी आरामतलब जीवनशैली और खानपान की गलत आदतें इस बीमारी के लिए जिम्मेदार हैं। हालांकि हम सावधानी के तौर पर कुछ सामान्य उपाय अपना सकते हैं। चिकित्सकों का मानना है कि कैंसर के लिए मोटापा एक जोखिम है, इसलिए खुद को फिट रखने के लिए प्रतिदिन 30-45 मिनट का व्यायाम जरूर करना चाहिए। आहार विशेषज्ञों का मानना है कि उबला हुआ खाना तले-भुने खाने की तुलना में सेहत के लिए बहुत अच्छा होता है। फाइबरयुक्त आहार पाचनतंत्र के लिए अच्छा होता है। विशेषज्ञों के अनुसार दिन भर में लगभग 35 ग्राम फाइबर लेना सेहत के लिए अच्छा होता है। हरी सब्जियों में फाइबर बहुत होता है। आहार में चीनी और नकम की मात्रा संतुलित रखना चाहिए। धूम्रपान और शराब से जितनी दूरी बनाया जाए वह अच्छा होगा। इलेक्ट्रानिक चीजों के बहुतायत इस्तेमाल से बचना चाहिए। मोटापे पर नियंत्रण रखना चाहिए। गर्भनिरोधक गोलियों का सहारा नहीं लेना चाहिए।

हालांकि क्रांति के इस दौर में बदलते प्रतिमानों के बीच इस तरह की बीमारियां जहां आम हो गई हैं वहीं देश की कई जानी-मानी हेल्थकेयर कंपनियों में स्वास्थ्य संबंधी इन चुनौतियों से उपभोक्ताओं को निजात दिलाने के लिए होड़ मची हुई है। भारतीय हेल्थकेयर कंपनियां घरेलू स्वास्थ्य सेवा उपभोक्ताओं के लिए स्वास्थ्य से जुड़ी ढ़ेरों सेवाएं मुहैया करा रही हैं। हेल्थकेयर सेक्टर के बड़े प्रदाता अपने उपभोक्ताओं को विश्व स्तरीय सुविधाएं मुहैया कराने की ओर उन्मुख है। इसके अलावा, कई लोग अपनी जीवन शैली में सुधार लाने के लिए फिटनेस ट्रैनर की भी मदद लेने लगे हैं।

(बिज़नेस स्टैंडर्ड-हिन्दी, मुंबई संस्करण के प्रायोजित परिशिष्ट में प्रकाशित)

भारत में तेजी से फलफूल रहा है हेल्थकेयर का कारोबार


              हमारे देश में ‘‘हेल्थकेयर सेक्टर’ सबसे तेजी से उभरता हुआ उद्योग है। इसका अंदाजा भारतीय उद्योग चैम्बर फिक्की द्वारा जारी की गई उस रिपोर्ट से सहज ही लगाया जा सकता है, जिसमें यह कहा गया है कि ‘‘सूचना प्रौद्योगिकी के बाद हेल्थकेयर सेक्टर भारत में सबसे तेजी से बूम करने वाला उद्योग है।’’ रिपोर्ट में यह भी संभावना जताई गई है कि ‘‘स्वास्थ्य सेवाओं पर 14 फीसदी सालाना की दर से किए जाने वाले खर्च के साथ 2020 तक भारतीय हेल्थकेयर सेक्टर का कारोबार 280 बिलियन डॉलर का हो जाएगा।’’ 2009 में जहां हेल्थकेयर सेक्टर में जीडीपी का 5.5 फीसदी हिस्सा खर्च किया गया, वहीं 2012 तक इसे बढ़ाकर 8 फीसदी किए जाने का अनुमान है। वर्तमान में, हेल्थकेयर सेक्टर का कारोबार करीब 40 बिलियन डॉलर का है और यह उम्मीद जताई जा रही है कि 2012 तक इस क्षेत्र का दायरा बढ़कर 78.6 बिलियन डॉलर का हो जाएगा।

भारतीय हेल्थकेयर सेक्टर में आई तेजी की मुख्य वजह लोगों की आय में हुई वृद्धि के साथ-साथ लंबे समय तक जीवन प्रत्याशा, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में किए जाने वाले खर्चों में बढ़ोतरी और प्राइवेट सेक्टर द्वारा बड़े पैमाने पर किए जाने वाले निवेश को माना जा रहा है।

फिक्की की रिपोर्ट के अनुसार भारत हेल्थकेयर सेक्टर में जीडीपी का 5.2 फीसदी हिस्सा खर्च करता है, जिसमें से 4.3 फीसदी निजी प्रदाताओं द्वारा खर्च किया जाता है। इस रिपोर्ट में यह उम्मीद जताई जा रही है कि 2012 तक हेल्थकेयर सेक्टर में निजी प्रदाताओं द्वारा किए जाने वाले खर्च का दायरा बढ़कर 45 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा। इसके अलावा, इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 2012 तक हॉस्पिटल सेक्टर, जोकि हेल्थकेयर सेक्टर के कुल कमाई का 70 फीसदी से अधिक की उगाही करता है, अकेले 54.7 बिलियन डॉलर के कारोबार तक पहुंच जाएगा। अगर हम रोजगार की बात करें तो, एक अनुमान के मुताबिक हेल्थकेयर सेक्टर 2012 तक 9 मिलियन की आबादी को रोजगार मुहैया कराएगा।

पिछले दो साल के दौरान हेल्थकेयर सेक्टर में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिला है। एक ओर जहां देश की जानी-मानी कंपनियां हेल्थकेयर सेक्टर में विस्तार योजनाओं का एलान कर रही हैं वहीं इस क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी दिग्गज कंपनियों ने बड़े पैमाने पर निवेश की घोषणाओं को मूर्त रूप देने में जुटी हुई हैं। इस तरह के हो रहे विस्तार और निवेश की घोषणाओं से एक बात तो साफ है कि हेल्थकेयर सेक्टर भारतीय अर्थव्यवस्था का मजबूत आधारस्तंभ बनता जा रहा है।

मालूम हो कि रिलायंस इंडस्ट्री के प्रोमोटर मुकेश अंबानी भारत में सर हरकिसनदास नरोत्तमदास हॉस्पिटल (एचएनएच) नामक विश्व स्तरीय हॉस्पिटल की स्थापना कर रहे हैं। यह हॉस्पिटल रिलायंस फाउंडेशन के अंतर्गत बनाया जा रहा है और यह उम्मीद जताई जा रही है कि इसे अगले दो साल के अंदर शुरू कर दिया जाएगा। यह हॉस्पिटल पूरी तरह एकीकृत नवीन तकनीकों एवं उच्च गुणवत्ता वाली सुविधाओं से लैस होगा। हालांकि मुकेश अंबानी के छोटे भाई, अनिल अंबानी इस सेक्टर में पहले ही प्रवेश कर चुके हैं। अनिल अंबानी द्वारा मुंबई में कोकिलाबेन धीरुभाई अंबानी हॉस्पिटल एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना किया गया है। 750 बिस्तरों वाला यह टर्टियरी केयर हॉस्पिटल देश के सबसे बड़े हॉस्पिटलों में से एक है।

वर्तमान में, तेजी से फलफूल रहे हेल्थकेयर सेक्टर पर अंबानी भाइयों के अलावा देश की कई जानी-मानी कंपनियां भी अपनी नजरें गराई हुई हैं, जिसमें मुख्य रूप से हिन्दुजा, सहारा ग्रुप, इमामी, अपोलो टायर्स और पनासिया ग्रुप शामिल हैं। हालांकि इन नामचीन कंपनियों के द्वारा इस सेक्टर में प्रवेश करने के पीछे कई पर्याप्त कारण गिनाए जा सकते हैं। फिक्की और अर्नेस्ट एंड यंग द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि 2025 के अंत तक देश में स्वास्थ्य सेवा उपभोक्ताओं के लिए 1.75 मिलियन अतिरिक्त हॉस्पिटल बिस्तरों की आवश्यकता पड़ेगी और साथ ही यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि इसमें प्राइवेट सेक्टर का योगदान 15-20 फीसदी का होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों को 2025 तक हेल्थकेयर सेक्टर में लगभग 86 बिलियन डॉलर निवेश करने की आवश्यकता होगी। वर्तमान में, भारत में प्रति एक लाख आबादी पर केवल 860 हॉस्पिटल बिस्तर ही उपलब्ध है।

सुब्रतो रॉय की नेतृत्व वाली सहारा समूह भी इस सेक्टर में अपने कदम बढ़ा चुकी है। इस समूह के पास पहले से ही कई हॉस्पिटल मौजूद है। इस समूह ने एम्बी वैली सिटी में 1,500 बिस्तरों वाला एक मल्टी सुपर-स्पेशियलिटी टर्टियरी केयर हॉस्पिटल, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 200 बिस्तरों वाला एक मल्टी-स्पेशियलिटी टर्टियरी केयर हॉस्पिटल और साथ ही समूह के तमाम 217 सहारा सिटी होम्स टॉउनशिप में 30 बिस्तरों वाला मल्टी-स्पेशियलिटी सेकेंडरी केयर हॉस्पिटल की स्थापना करने की योजना बनाई है। सहारा समूह के 217 हॉस्पिटलों में से पहले चरण के 88 टॉउनशिपों में से नौ हॉस्पिटलों को जल्द ही अहमदाबाद, औरंगाबाद, कोयम्बटूर, इंदौर, ग्वालियर, जयपुर, लखनऊ, नागपुर और सोलापुर में शुरू किया जाएगा। इन सभी परियोजनाओं को अस्तित्व में लाने के लिए सहारा समूह को करीब 3000-4000 करोड़ रुपये निवेश की आवश्यकता पड़ेगी।

अपोलो टायर्स समूह ने भी अपने हेल्थकेयर उद्यम, अरतिमिस हेल्थ साइंस (एएचएस) को शुरू कर इस सेक्टर में कदम रख दी है। अरतिमिस हेल्थ साइंस 260 बिस्तरों वाला एक टर्टियरी केयर सुपर-स्पेशियलिटी हॉस्पिटल होगा और जिसे 260 करोड़ रुपये की निवेश के साथ गुड़गांव में स्थापित किया जा रहा है। यह समूह अगले तीन साल में उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में चार से आठ मल्टी-स्पेशियलिटी हॉस्पिटल के निर्माण की योजना बना रही है। उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में गुणवत्तापूर्ण हेल्थकेयर सुविधाओं को मुहैया कराने वाली कंपनी इमामी ने भी अपने विस्तार की योजना बनाई है।

इसमें कोई शक नहीं कि शिक्षा की दर में दिनों-दिन हो रही वृद्धि ने बेहतर हेल्थकेयर मांग की जागरूकता को कई गुणा बढ़ा दिया है। हेल्थ इंश्यूरेंस संबंधी मांगों में बढ़ोतरी आखिरकार हेल्थकेयर सेक्टर को ही मजबूत कर रही है।

वर्तमान में, एक लाख बिस्तरों में से केवल 10 फीसदी का प्रबंधन ही प्राइवेट सेक्टर द्वारा किया जाता है। ऐसे समय में जब लोगों की जीवन प्रत्याशा में वृद्धि हो रही है और इसके साथ ही जीवन शैली की बीमारियों में भी इजाफा देखने को मिल रहा है, वैसे में हेल्थकेयर सेक्टर में निजी कंपनियों की प्रवेश की आवश्यकता तेजी से बढ़ती जा रही है।

(बिज़नेस स्टैंडर्ड-हिन्दी, मुंबई संस्करण के प्रायोजित परिशिष्ट में प्रकाशित)

Monday, July 25, 2011

अमोनियम नाइट्रेट, बम धमाके और बेखबर सरकार...


              13 जुलाई की शाम मुंबई में हुए आतंकी हमले की शुरुआती जांच में यह बात सामने आई है कि मुंबई को मातम में बदलने के लिए आतंकवादियों ने एक बार फिर अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया है। हालांकि यह पहली मर्तबा नहीं है, जब उर्वरक के रूप में इस्तेमाल होने वाले इस रसायनिक खाद को आतंक का सामान बनाया गया है।

1997-98 में दिल्ली-मुंबई में हुए एक के बाद एक बम धमाकों में पहली बार अमोनियम नाइट्रेट के इस्तेमाल की बात सामने आई थी। 2 दिसंबर 2002 को मुंबई के घाटकोपर स्टेशन के बाहर बेस्ट बस के अंदर धमाके में इसका इस्तेमाल हुआ, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी। 28 जुलाई 2003 को एक बार फिर मुंबई के घाटकोपर में ही बेस्ट बस को निशाना बनाया गया। इसके बाद 11 जुलाई 2006 को मुंबई की लाइफ लाइन कहे जाने वाली लोकल ट्रेनों सहित विभिन्न जगहों पर एक के बाद एक 7 जबरदस्त धमाके किए गए जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई। यह संभवतः पहला मौका था जब आतंकवादियों ने अमोनियम नाइट्रेट, आरडीएक्स, टीएनटी विस्फोटक, तेल और बॉल बेयरिंग के घातक मिश्रण का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर तबाही फैलाने के लिए किया था। इसके बाद, 2008 में बैंग्लोर, अहमदाबाद और दिल्ली में भी इसी तरह के मिश्रण का इस्तेमाल कर सीरियल बम ब्लास्ट किया गया। 2010 में वाराणसी को दहलाने वाला धमाका भी अमोनियम नाइट्रेट से ही किया गया था। 17 फरवरी 2010 को पुणे स्थित जर्मन बेकरी में भी आरडीएक्स और अमोनियम नाइट्रेट के मिश्रण से विस्फोट किया गया, जिसमें करीब 17 लोगों की मौत हो गई थी। सितंबर 2010 को दिल्ली के जामा मस्जिद के पास हुए विस्फोट में भी आतंकवादियों ने अमोनियम नाइट्रेट का ही इस्तेमाल किया था।

हालांकि इन तमाम आतंकी घटनाओं के मद्देनजर एक सवाल यहीं से उठता है कि अगर आतंकवादियों द्वारा इतने लंबे समय से अमोनिमयन नाइट्रेट का इस्तेमाल देश में आतंकी घटानाओं को अंजाम देने के लिए किया जा रहा है तो इस केमिकल की खरीद-बिक्री पर अभी तक कोई सख्त कमद क्यों नहीं उठाया गया है? दरअसल, इसका जवाब सरकार के उस विस्फोटक अधिनियम, 1884 में ही छिपा हुआ है जो 127 साल पुराना है। चूंकि अमोनियम नाइट्रेट, जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और जो खेती-बाड़ी में बेहद लाभदायक है, का इस्तेमाल पैदावार को बढ़ाने वाले खाद के रूप किया जाता है इसलिए यह अधिनियम इस केमिकल को घातक विस्फोटकों की श्रेणी में नहीं रखता है।

अतः ऐसे में ही आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने वालों के लिए अमोनियम नाइट्रेट बाजार में उपलब्ध सबसे सस्ता और सहज विस्फोटक हो जाता है। वैसे तो अमोनियम नाइट्रेट अपने मूल रूप में घातक नहीं होता है लेकिन हमारी सरकार और खुफिया तंत्र यह भली-भांति जानती है कि आतंकवादी इस केमिकल में थोड़ा-बहुत तिकड़मबाजी करके इसे किस तरह सबसे घातक हथियार का शक्ल दे देता है। शायद यही वजह है कि 1997 से लेकर जुलाई 2011 तक हजारों लोगों की जानें गंवाने के बाद हमारी सरकार को इस दिशा में नए कानून बनाने की सुझी है और वे इसी मानसून सत्र में इसे लेकर आने की बात भी कर रही है।

जब हम यह कहते हैं कि 9/11 के बाद अमेरिका में कोई भी आतंकी हमला नहीं हुआ है या नाकाम कर दिया गया है तो यहीं पर यह भी बात उठती है कि हमेशा अमेरिका का पिछल्लगू बनी रहने वाली हमारी सरकार सुरक्षा के उन मानकों को क्यों नहीं अपनाती है, जिसे अमेरिका या अन्य विकसित देश सफलतापूर्वक अपने यहां लागू करता है। मालूम हो कि अमेरिका ने सिक्योर हैंडलिंग ऑफ सेफ अमोनियम नाइट्रेट एक्ट 2007 बनाया है, जिसके तहत अमोनियम नाइट्रेट बनानी वाली सारी कंपनियों को विशिष्ट पंजीकरण संख्या मुहैया करवाया जाता है। इन कंपनियों को अपने मालिकान, उत्पादन क्षमता और बिक्री का पूरा ब्यौरा सरकारी एजेंसी को देना अनिवार्य होता है। वहीं दूसरी ओर ब्रिटेन में सरकार ने अमोनियम नाइट्रेट को एक खास कोटिंग के जरिए विस्फोटक ग्रेड से अलग कर दिया है।

ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने तो तमाम कंपनियों को मैनुफैक्चर्स कौंसिल ऑफ एक्सप्लोसिव ऑफ ऑस्ट्रेलियन गवर्नमेंट के तहत पंजीकरण करवाने का सख्त आदेश दिया है। यह कौंसिल उन कंपनियों के उत्पादन, स्टोरेज और आयात-निर्यात पर कड़ी नजर रखती है जो अमोनियम नाइट्रेट की खरीद-बिक्री करती हैं। इसके अलावा, नवंबर 2009 में पाकिस्तान ने भी तालिबान के दबदबे वाले मलाकंद इलाके में अमोनियम नाइट्रेट की खरीद-बिक्री पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी है और अमेरिका द्वारा पूरे देश भर में इस केमिकल पर पाबंदी लगाने का दबाव बनाया जा रहा है। अफगानिस्तान ने तो जनवरी 2010 से ही इसके इस्तेमाल को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है।

माना कि हमारे देश में अमोनियम नाइट्रेट की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उस पर पूरी तरह पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है लेकिन हमारी बेखर सरकार को कम से कम सख्त कानूनों के जरिए इसके खरीद-बिक्री पर तो पूरी नजर रखनी ही चाहिए।

Wednesday, July 20, 2011

ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां...

फिल्म सी.आई.डी. (1956) का यह गीत शहरी जिंदगी के भौतिक एवं अनुभवात्मक पक्षों का चित्रण इस प्रकार करता हैः-



ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां
जहा हट के, जरा बच के,
ये है बॉम्बे मेरी जान।
कहीं बिल्डिंग, कहीं ट्रामें,
कहीं मोटर, कहीं मिल,
मिलता है यहां सब कुछ,
इक मिलता नहीं दिल,
इंसान का नहीं कहीं नाम ओ-निशां।
कहीं सत्ता, कहीं पत्ता,
कहीं चोरी, कहीं रेस,
कहीं डाका, कहीं फाका,
कहीं ठोकर, कहीं ठेस,
बेकारों का है क्या काम यहां!
बेघर को आवारा यहां कहते हंस-हंस,
खुद काटें गले सबके, कहें इसको बिजनेस,
इक चीज के हैं कई नाम यहां।
गीता बुरा दुनिया वो है कहता
ऐसा भोला तू ना बन
जो है करता, वो है भरता,
है यहां का ये चलन।
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प्यारे दिल, यहां जिंदगी मुश्किल है, अगर तुम खुद को बचाना चाहते हो तो तुम्हें देखना पड़ेगा कि तुम किस रास्ते पर जा रहे हो। मेरे प्यारे यह मुंबई है। तुम्हें यहां बहुमंजिली इमारतें मिलेंगी, ट्रामें मिलेंगी, वाहन मिलेंगे, कारखाने मिलेंगे, इंसानियत भरे दिल को छोड़कर तुम्हें यहां सब कुछ मिलेगा। इंसानियत का यहां कोई नामो निशान नहीं हैं। यहां पर जो भी करें उसका कोई मतलब नहीं है। शक्ति या पैसा या चोरी या विश्वासघात ही यहां चलता है। अमीर लोग गृहविहीन लोगों की आवारा व्यक्तियों की तरह हंसी उड़ाते हैं, लेकिन जब वह एक दूसरे के गले काटते हैं, तब उसे व्यापार कहते हैं। यहां इस एक कार्य को कई नाम दिए गए हैं। (स्रोतः एनसीईआरटी)

Thursday, June 16, 2011

(RE)PLACE NOT (RE)CTIFY

There are too much havoc created by blueline buses but is it right to remove blueline buses from the city without any proper substitutes? And removing the blueline buses are not the real solution else it is just to cover up the shortcomings of the Transport Authority. It is so because if they maintain proper check on the blueline buses this situation had never come. But it’s India we are in the habit of replacing not rectifying.

Shantanu kr sinha
(sinhakrshantanu@gmail.com)

Saturday, February 5, 2011

राष्ट्रमंडल खेल के साइड इफेक्ट


अगर बात कैंपस में नए फैशनेबल परिधानों के आगमन की होती या फिर अंग्रेजी माध्यम के छात्र-छात्रों द्वारा अपनाए गए नए अवतार की, तो निश्चित तौर पर इस खबर को कुछ बड़े प्रकाशनों द्वारा पूरा पेज दिया गया होता या चैनलों द्वारा आधे या एक घंटे का प्रोग्राम ही तैयार करा दिया गया होता। चूंकि बात छात्र-छात्राओं के हक की थी, तो शायद इनके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती है।

बीते दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी स्थित स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा के पास युवाओं के हुजूम ने कैंपस के कॉलेजों में पढ़ने वाले पुराने व नए छात्र-छात्रों को छात्रावास आवंटन कराने की मांग को लेकर शांतिपूर्ण लेकिन प्रभावशाली तरीके से अपना विरोध प्रदर्शन दर्ज करवाया, तो देश के तमाम खबरिया चैनलों और समाचारपत्रों को यह खबर कुछ खास लुभा नहीं पाई।

मालूम हो कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान आने वाले मेहमानों को ठहराने के नाम पर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावासों को छात्र मुक्त बनाने के लिए वहां रह रहे नए-पुराने सभी छात्र-छात्राओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। प्रथम वर्ष में दाखि लेने वालों को तो साफ-साफ कह दिया गया है कि फिलहाल वे कोई और ठिकाना ढूंढ लें। अब इन लोगों को छात्रावास में दोबारा जगह राष्ट्रमंडल खेल के खत्म होने के बाद ही मिलेगी।

यह कहना गलत नहीं होगा कि बात चाहे कॉमन मैन की हो या फिर छात्रों की, सभी पर राष्ट्रमंडल खेल के साइड इफेक्ट स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहे हैं। लेकिन इन सभी बातों के बीच एक बात समझ से परे है कि दिल्ली सरकार ने बाहर से आने वाले मेहमानों को ठहराने के लिए छात्रावास को ही निशाना क्यों बनाया। अगर सरकार चाहती तो उनके लिए नए छात्रावासों का निर्माण करवा सकती थी या फिर सरकारी गेस्ट हॉउसों में ही उत्तम प्रबंध करवा सकती थी।

आखिर खेल के नाम पर जहां करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हों, वहां कुछ रुपए और सही। अगर दिल्ली सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन नए छात्रावास बनाने के बारे में विचार करता, तो निश्चित तौर पर यह ज्यादा फायदेमंद साबित होता। सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटा लागू किए जाने के बाद छात्र-छात्राओं ने अतिरिक्त छात्रावासों की मांग की थी। ऐसे में नए तैयार किए गए हॉस्टलों के जरिए मांग और आपूर्ति को पाटा जा सकता था। पहले से ही दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रावासों की संख्या दूसरे राज्यों से आने वाले छात्रों के अनुपात में काफी कम है। कई छात्र मजबूरी में बाहर कमरे लेकर रहते हैं। लेकिन कौन समझाए दिल्ली सरकार को, वह तो खेलों के सफल आयोजन कराए जाने को लेकर कुछ भी कर गुजरने पर आमादा है और यही वजह है कि वह नए कमरे बनाने के मुकाबले सुरक्षित रह रहे बच्चों को बाहर खदेड़ना ज्यादा आसान समझती है।

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के प्रस्तावित बजट में अब तक कई गुना वृद्धि हो चुकी है और इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले समय में इसमें और वृद्धि देखने को मिलेगी। दिल्ली सरकार तो पिछले तीन सालों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आवंटित बजट राशि को भी राष्ट्रमंडल खेलों में ही झोंक रही है। तो क्या ऐसे में सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम आदमी और छात्रों को तकलीफ पहुंचा कर इस तरह के खेल आयोजित कराने की क्या जरूरत है।

दरअसल, एक ओर जहां केंद्र की मिलीभगत से दिल्ली सरकार कॉमन मैन की गाढ़ी कमाई को राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पानी की तरह बहा रही है, वहीं दूसरी ओर वह छात्रों के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रही है।

('दैनिक भास्कर' में 10 अगस्त '10 को प्रकाशित)