पुस्तक - सुशासन के आईने में नया बिहार
संपादक - पंकज कुमार झा
प्रकाशक - विद्या विहार (प्रभात प्रकाशन), नई दिल्ली
कीमत – 350/- रुपए
अंग्रेजी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका “सेमिनार” ने 1997 में शीर्षक “द स्टेट ऑफ बिहार” में बिहार को एक“ट्रबल्ड स्टेट” कहा था। इस अंक का पूरा ताना-बाना बिहार को संकटग्रस्तता, विवशता और तंगहाली से भरे राज्य की संज्ञा देने के रूप में बुना गया था। लेकिन महज दस वर्षों के बाद 2007 में ही सेमिनार का 580वां अंक आता है, जिसमें बिहार सरकार द्वारा संकटग्रस्तता की विरासत को दूर करने संबंधी प्रयासों को रेखांकित किया गया।
अगर सेमिनार के इन दो अंकों का तुलनात्क अध्ययन करें तो यह बात सामने आती है कि 1997 में दिखने वाला कुशासन और जंगलराज नीतीश कुमार के शासनकाल में सुशासन एवं मंगलराज में बदल गया है। लेकिन इसे कहीं से भी “फाइनल जजमेंट” मानना बेईमानी होगी। इस निष्कर्ष को व्यावहारिक धरातल पर जांचने-परखने के लिए युवा लेखक पंकज कुमार झा अपनी पहली पुस्कत “सुशासन के आईने में नया बिहार” पाठकों के समक्ष लेकर आए हैं।
यह पुस्तक समकालीन बिहार की राजनीति व सुशासन तथा विकास के सरकारी दावों को सूक्ष्मता से जांचने-परखने का एक जरिया है। बिहार में हो रहे थोथे विकास और सुशासन के नाम पर दिखाए जा रहे झुनझुने को लेकर पंकज की पीड़ा उनकी किताब की मार्फत साफ झलकती है। पटना की सड़कों पर दिखने वाला गुड गवर्नेंस पटना से बाहर निकलते ही किस तरह अपंग हो जाता है और यहां का युवा वर्ग अपने सपनों के बिहार को छोड़ने को कैसे मजबूर होता है, उसे पंकज ने उदाहरणों और आँखों देखे हालात के जरिए बेहतरीन ढंग से उकेरा है।
इस किताब को तीन भागों में बांटा गया है। पहले भाग में आम लोगों की आवाज सरकारी दावों से जिरह करती नज़र आती है। इस भाग में चाय वाले से लेकर रिक्शा चालक तक की चिट्ठी है तो खेतिहर-मजदूर से लेकर चूल्हा फूंकने वाली गृहिणी तक ने खत लिखें हैं। लगभग 85-90 फीसदी लोगों ने यह माना है कि नीतीश कुमार के शासनकाल में सड़कें बनी हैं, कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधरी है।
किताब का दूसरा भाग संघर्षशील समाज के स्वर को प्रस्तुत करता है। इसमें युवा शोधार्थी और पत्रकारों के लेखों-विचारों को जगह दी गई है। बिहार से जुड़ें मुद्दों मसलन बाढ़, नक्सलवाद, गवर्नेंस, ग्रामीण विकास, बिहार के मीडिया में जातिवाद, सुशासन, कानून-व्यवस्था की स्थिति आदि पर प्रकाश डाला गया है।
किताब का तीसरा व अंतिम भाग साक्षात्कार का है। वरिष्ठ पत्रकारों, एनजीओ कर्मी और बुद्धिजीवियों के इंटरव्यू शामिल किए गए हैं। महत्वपूर्ण है कि साक्षात्कार को प्रश्नोत्तर शैली में न रखकर विचारों के रूप में रखा गया है। निश्चित तौर पर बिहार के चुनावी समर में यह पुस्तक एक पूर्वानुमान और चुनावी विश्लेषण का काम कर सकेगी। पुस्तक के माध्यम से जो संकेत उभर रहे हैं, वे इतने गूढ़ हैं कि चुनाव के बाद किसी की भी सरकार बने, यह पुस्तक सत्ता पक्ष व विपक्ष के लिए एक आईने के रूप में सामने आएगी।
('दैनिक भास्कर' में 20 नवंबर '10 को प्रकाशित)
Nice one...
ReplyDeleteKeep it up...
God bless =)